वेदविभागीय परिचय
भारत की राजधानी दिल्ली में श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्विद्यालय (मानित-विश्वविद्यालय), नई-दिल्ली-16, की स्थापना संस्कृत तथा भारतीयसंस्कृति के प्रचार-प्रसार एवं संरक्षण हेतु की गई थी। उस दिशा में विश्विद्यालय स्थापना से लेकर आजतक निरन्तर कटिबद्ध होकर प्रगतिपथ पर आरूढ़ है। इस विश्विद्यालय में वेद-वेदाङ्ग के साथ अठारह विषयों में अनेक छात्र अध्ययनरत हैं। वेद विश्व साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ है। वेद एवं वैदिक-संस्कृति ये दोनों भारत की अस्मितास्वरूप हैं। अतः वेदों की रक्षा की दृष्टि से विश्विद्यालय में वेदाध्ययन की विशेष व्यवस्था है।
समस्त वैदिक-वाङ्मय मुख्य रूप से तीन धाराओं में विभाजित हैं।
- अक्षरग्रहण
- अर्थानुशीलन एवं
- प्रयोग।
अक्षरग्रहण- से तात्पर्य है पारम्परिक रीति से सस्वर वेदमन्त्रों का अभ्यास करना।
अर्थानुशीलन- से तात्पर्य है वेदमन्त्रों में निहित गूढ अर्थों का निरुक्त, व्याकरण, ब्राह्मण तथा मीमांसा ग्रन्थों की सहायता से प्रतिपादित करना तथा योगक्षेम हेतु समाज का मार्गदर्शन कराना।
प्रयोग- यह पक्ष बहुत ही व्यापक तथा गहन है। ऋषियों ने प्रकृति में होने वाले समस्त गतिविधियों का विधिवत् अध्ययन कर तदनुरूप विविध यज्ञानुष्ठानों का प्रतिपादन किया है, जो प्रकृति में होनेवाले प्रत्येक उपद्रवों का उपशमन करने में पूर्णतः समर्थ हैं। एतदर्थ ऋषिसम्मत मार्ग श्रौत-स्मार्त अनुष्ठान है, जिसका सूत्र रूप में श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र एवं शुल्बसूत्रों में सविधि निरूपण किया गया है। उपर्युक्त तीनों धाराओं के सरंक्षण की दिशा में विश्विद्यालय वेद विभाग सतत प्रयत्नशील है। विभाग में समय-समय पर विभिन्न विषयों पर व्याख्यानमाला, वैदिकसम्मेलन, तथा प्रयोगानुष्ठान किया जाता है। इस विषय में यह उल्लेखनीय है कि 6 जनवरी 1996 में विश्विद्यालय परिसर में पौर्णमासेष्टि का सफल अनुष्ठान किया गया, जिसे देखने के लिए भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों से आचार्य एवं जिज्ञासु छात्र उपस्थित हुए थे।